Wednesday, January 23, 2013

क्या जरुरत नेताओं के बहस की

लोकतंत्र को मजबूती प्रदान करने के लिए जरूरी है कि किसी मुद्दे पर गंभीर बहस की जाए। लेकिन, संसद में पहुंचने वाले लोगों के भीतर बहस की प्रवृत्ति कम होती जा रही है। अब यहां जल्दबाजी में विधेयक पारित किए जाने लगे हैं।लोकतंत्र में संसदीय बहस की परंपरा को मजबूत करने के लिए काम करने वाली संस्था ‘पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च’ के अध्ययन के अनुसार 14वीं लोकसभा के अंतिम दिन 17 मिनट के भीतर आठ विधेयक पारित किए गए। इससे पता चलता है कि विधेयक के पारित होने से पहले उसपर कितनी गंभीर बहस हुई होगी।
अध्ययन में इस बात का जिक्र है कि वर्ष 2008 के दौरान संसद ने वित्त व विनियोग से संबंधित 32 विधेयक पारित किए। इनमें से कई विधेयक बिना बहस के पारित हुए। अध्ययन के मुताबिक 28 प्रतिशत विधेयक 20 मिनट से कम बहस के बाद पारित किए गए, जबकि 19 प्रतिशत विधेयक पर एक घंटे से कम समय तक बहस किया गया।
इस संबंध में विपक्षी सांसदों का कहना है कि सरकार ने जल्दबाजी में काम किया।
कई नेता मानते हैं कि चर्चा के बिना किसी विधेयक का पारित होना ठीक परंपरा की निशानी नहीं है। लेकिन, अधिकत्तर मामलों में विधेयक पारित कराने के लिए सरकार जल्दबाजी में रहती है।

Tuesday, January 22, 2013

घंटा करप्शन जाएगा



सारण के डीआइजी पर रंगदारी मांगने के आरोप के खुलासे के 24 घंटे के भीतर राज्य सरकार ने उन्हें पद से हटा दिया. सोमवार को डीजीपी ने पूरे मामले की जानकारी मुख्यमंत्री को दी. इसके बाद देर शाम एडीजी (हेडक्वार्टर) रवींद्र कुमार ने आलोक कुमार को हटाये जाने की जानकारी दी. अब डीआइजी से पूछताछ की तैयारी चल रही है. अधिकारियों ने कहा, साक्ष्यों के आधार पर आगे की कार्रवाई होगी.
पटना: शराब कारोबारी से 10 करोड़ रुपये रंगदारी मांगने के आरोप में घिरे सारण के डीआइजी आलोक कुमार को सोमवार को पद से हटा दिया गया. उनकी जगह डीआइजी (होमगार्ड) एस मलार विजी को सारण का नया डीआइजी बनाया गया है. राज्य सरकार ने आलोक कुमार को पुलिस मुख्यालय में बुला लिया है. फिलहाल वह पदस्थापन की प्रतीक्षा में रहेंगे. शराब बनाने वाली कंपनी दून वैली डिस्टिलरी के कर्मचारी टुन्नाजी पांडेय ने आलोक कुमार पर दस करोड़ रुपये रंगदारी मांगने का आरोप लगाया था. जांच में यह आरोप सही पाये गये. इसी मामले में रविवार को तीन लोगों को गिरफ्तार किया गया था, जो कथित तौर पर डीआइजी के एजेंट की भूमिका में थे. पांच लाख रुपये नगद भी बरामद किये गये थे.
सोमवार को डीजीपी अभयानंद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से मिले और पूरे मामले की जानकारी दी. सोमवार को दिन भर आला अधिकारियों की बैठक चलती रही.
सूत्रों के मुताबिक, आर्थिक अपराध इकाई 1997 बैच के आइपीएस अधिकारी आलोक कुमार से पूछताछ भी कर सकती है. आपराधिक मामला दर्ज होने के बाद आरोपित डीआइजी से इंडियन पैनल कोड (आइपीसी) के अधिकार के तहत अनुसंधानकर्ता उनसे पूछताछ कर सकता है. प्रिवेंशन ऑफ करप्सन एक्ट के तहत निर्धारित नियम के आधार पर फिलवक्त पुलिस उपाधीक्षक स्तर के अधिकारी को पूरे मामले की जांच को लेकर अनुसंधानकर्ता बनाया गया है. मामले की मॉनीटरिंग एसपी, इओयू नवल किशोर सिंह कर रहे है. सूत्रों के अनुसार सर्विलांस के माध्यम से एकत्र किये गये वॉयस रिकार्ड व बरामद नोटों को भी बतौर सबूत न्यायालय के समक्ष पेश किया जायेगा. आवश्यकता पड़ने पर डीआइजी की गिरफ्तारी भी संभव है.
"पुलिस अधिकारी आलोक कुमार को सारण के डीआइजी पद से हटाकर पुलिस मुख्यालय में वेटिंग फॉर पोस्टिंग रखा गया है. उनके ख़िलाफ़ शुरू हुई जांच से जो तथ्य सामने आएंगे, उन्हीं के मद्देनज़र उचित कार्रवाई की जाएगी. वैसे शुरुआती तफ्तीश में जो कुछ साक्ष्य मिले थे, वे संबंधित शिकायत से मेल खाते थे, इसलिए मामला दर्ज हुआ."
एडीजी रवीन्द्र कुमार, पुलिस प्रवक्ता

नोटों पर लगाया गया था केमिकल
सूत्रों ने बताया कि ट्रैपिंग के दौरान इओयू ने रंगदारी व घूस में दिये जानेवाले पांच लाख रुपये को केमिकल लगा कर दिया गया था. इससे रुपये लेनेवाले दीपक अभिषेक व अजय दूबे की उंगलियों के निशान नोटों पर अंकित हो गये है. डीआइजी के साथ नोट लेनेवालों का संबंध साक्ष्य आधारित मौजूद है.
दो कंपनियों के प्रतिनिधि हैं टुन्नाजी पांडे
शिकायतकर्ता सीवान के दरौली निवासी टुन्नाजी पांडे दो शराब कारोबारी कंपनियों के लिए प्रतिनिधि का काम करते हैं. इनमें एक दून वैली डिस्टीलर्स व दूसरा को-ऑपरेटिव कंपनी, नवाबगंज, सहारनपुर, उत्तर प्रदेश है. सीवान व गोपालगंज में देशी शराब की आपूर्ति के लिए को-ऑपरेटिव कंपनी को ही उत्पाद विभाग द्वारा लाइसेंस प्रदान किया गया है.

विधान पार्षद का रिश्तेदार है उमेश
आलोक कुमार के टुन्नाजी को धमकी देने और दस करोड़ की रंगदारी मांगने में जिस उमेश को पुलिस ने गिरफ्तार किया है, वह एक विधान पार्षद का चचेरा साला है. आलोक जब पटना के एसएसपी थे, तब भी उमेश उनका खास था. शुरुआती दौर में उमेश लोजपा का कार्यकर्ता बना. दरौंदा उपचुनाव के दौरान वह जदयू में शामिल हुआ था.

Wednesday, August 15, 2012

आत्महत्या या मर्डर

पूर्व विमान पारिचारिका (एयर होस्टेस) गीतिका शर्मा की ख़ुदकुशी ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं. 23 साल की गीतिका की ख़ुदकुशी के पीछे हरियाणा के गृह राज्य मंत्री गोपाल गोयल कांडा द्वारा मानसिक प्रताड़ना की बात सामने आई है. सुसाइड नोट की बिना पर उक्त मंत्री के खिलाफ एफ. आई. आर. भी दायर किया गया. टीवी चैनलों को एक और मसाला मिल गया. हर चैनल इस आत्महत्या की मिस्ट्री को सबसे पहले सुलझाने में लगा है. खबर को सनसनीखेज बनाने की हर संभव कोशिश जारी है, लेकिन पूरे हंगामे में अहम बात ही गौण होती जा रही है. महज 23 वर्ष की आयु में गीतिका ने आखिर कितनी प्रताड़ना झेली होगी की उसे मौत को गले लगाना पड़ा? एक राज्य का गृह मंत्री जब ऐसी हरकत कर सकता है तो महिलाएँ खुद को कहाँ सुरक्षित महसूस करेंगी? जिस उम्र में लड़कियाँ अपने करियर और शादी के सपने देखती हैं उस उम्र में गीतिका ने दुनिया को अलविदा कह दिया. सच तो यह है कि ये किसी एक लड़की की कहानी नहीं, बल्कि अच्छे करियर का सपना देखने वाली ऐसी हजारों लड़कियों की कहानी है जो शारीरिक और मानसिक यातना की शिकार हैं. भले ही मीडिया में इक्का-दुक्का मामले सामने आते हैं, लेकिन यह हजारों कामकाजी महिलाओं और सुंदर भविष्य का सपना देखने वाली महिलाओं की कहानी है. बात भले ही आत्महत्या तक न पहुँचे लेकिन प्रताड़ना झेलने के लिए ये अभिशप्त हैं. इनमें से कई परिस्थितियों का डट कर सामना करती हैं तो कुछ अपने सपनों को समेट लेती हैं, जबकि कई इस क्रूर समाज की शिकार बन जाती हैं. इसके बावजूद आरोप इन्हीं महिलाओं पर लगाया जाता है, क्योंकि इन्होंने सपने देखने का जुर्म किया है. आम लोगों की धारणा यही होती है कि जो महिला ज्यादा महत्वाकांक्षी होती हैं उन्हीं के साथ ऐसा होता है. खुद को बचाने का इससे अच्छा बहाना और क्या हो सकता है इस समाज के पास. हमारे देश के सबसे बड़े वर्ग (मध्यवर्ग) की कुछ ऐसी ही धारणा है. यही वजह है आज भी लड़कियों की आजादी पर पाबंदियाँ लगाई जाती हैं. उन्हें हर कदम पर इस क्रूर समाज से बचाने के लिए उनके सपनों को रौंदा जाता है. जिस तरह बड़ी मछलियाँ छोटी मछलियों का शिकार करती हैं उसी तरह किसी भी संस्थान में ऊँचे पदों पर आसीन व्यक्ति खुद को शिकारी समझता है. ऐसा नहीं कि केवल महिलाओं को ही परेशान किया जाता है. पुरुषों के सामने भी समस्याएँ आती हैं, लेकिन इस पुरुषसत्तात्मक समाज में महिलाओं को प्रताड़ित करना आसान और आनंददायक समझा जाता है. उन्हें निचले स्तर का ही माना जाता है. महिलाओं को मानसिक और शारीरिक रूप से प्रताड़ित करने की कोशिशें चलती रहती हैं. हर कोई मौके की तलाश में तैयार रहता है. सामनेवाले को कमजोर पाते ही वह उसपर हावी होना चाहता है. ऐसा ही कुछ गीतिका और ऐसी हजारों लड़कियों के साथ हो रहा है. आश्चर्य की बात यह है कि जो अपराधी है उसे कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन जिन महिलाओं को यह भुगतना पड़ता है वह बदनाम हो जाती हैं. महिलाओं के साथ छेड़छाड़ का मामला हो या बलात्कार का, समाज द्वारा महिलाएँ ही बहिष्कृत होती हैं, पुरूष अपराधी नहीं. ज्यादातर लोग मानते हैं कि ग्रामीण तथा अनपढ़ महिलाएँ हिंसा या अपराध की शिकार ज्यादा होती हैं, लेकिन सच तो यह है कि पढ़ी-लिखी, कामकाजी महिलाएँ हर दिन इस इस समस्या जूझ रही हैं. महानगरों में रहनेवाली ज्यादातर महिलाओं को हर दिन इस समस्या का सामना करना पड़ता है. पिछले दिनों जब महिला पत्रकारों की स्थिति पर एक शोध किया गया तो ज्यादातर महिलाओं ने यह स्वीकार किया कि महिलाओं को प्रताड़ित करने की कोशिशें चलती रहती हैं, लेकिन किसी ने भी खुद को इसका शिकार बताने परहेज किया. मतलब साफ़ है कि उन्हें अपनी छवि धूमिल होने का डर रहता है. यही वजह है कि उनकी समस्याएँ सबके सामने नहीं आ पातीं. समय के साथ लोगों के विचार बदले हैं और महिलाओं को कार्यक्षेत्र में महत्व भी मिल रहा है. लेकिन एक बड़ा वर्ग आज भी औरतों को अपने पावों की जूती समझता है. 10 सालों से समाचार चैनल में काम करने वाली "एक महिला पत्रकार का मानना है कि पुरुष अगर थोड़े कम योग्य हों तो चल जाता है, लेकिन महिलाओं को अगर काम करना है तो उसे बिलकुल परफेक्ट होना पड़ेगा." पुरुषवर्ग हर कदम पर अपनी महिला सहकर्मियों का लाभ उठाने की कोशिश करते हैं. कई बार वे सफल भी हो जाते हैं. अगर सफल न भी हुए तो भले ही उस महिला को नौकरी छोड़नी पड़े उनका कुछ नहीं बिगड़ता. गीतिका ने जाते-जाते इतनी हिम्मत तो दिखाई कि मंत्री का नाम सबके सामने आ पाया. ऐसी हिम्मत अगर वह जीते-जी दिखाती तो शायद उसे ही बेगैरत का खिताब दे दिया जाता. अपराध किसी एक का नहीं बल्कि पूरे समाज का है जो ऐसे अपराधी को पनाह देता है. इस तरह के सभी अपराधियों को समाज से बहिष्कृत करने की जरूरत है. जो इंसान औरत को उपभोग या मनोरंजन की वस्तु समझता है उसे इंसान कहलाने का हक नहीं....

By Aayush Rathaur
9905687845
Patna

Thursday, October 13, 2011

विज्ञापनों में शो-पिस बनती लड़कियां


बीते दिनों राष्ट्रीय महिला आयोग ने केंद्रीय सूचना और प्रसारण मंत्रालय को पत्र लिखकर कुछ विज्ञापनों पर लगाम कसने की मांग की। ये ऐसे विज्ञापन हैं, जिनमें स्त्री की नकारात्मक छवि पेश की गई है। दरअसल पिछले कुछ समय से ऐसे विज्ञापनों की भरमार होती जा रही है जिनमें महिलाओं को एक उत्पाद की तरह दिखाया जाता है। कुछ इस तरह जैसे वह भोग की सामान हों। आज एक क्रीम से लेकर सिम कार्ड तक के विज्ञापनों में स्त्री का यही रूप देखने को मिलता है। सिमकार्ड के एक विज्ञापन में एक लड़का फोन पर एक- एक करके दो लड़कियों को अपनी टांग टूटने की झूठी कहानी बताता है और जब उसका दोस्त उससे रुकने के लिए कहता है तो वह जवाब में कहता है कि 'जब दो पैसे में दो-दो पट रही हैं तो क्या प्रॉब्लम है।'

एक अन्य विज्ञापन में खेल के मैदान में एक खिलाड़ी अपने साथी को अपने मोबाइल पर अपनी बहुत सारी गर्लफ्रेंड्स की पिक्चर्स एक-एक करके बड़ी शान से दिखाता है, मानो उसने कोई बहुत बड़ा शाबाशी वाला काम किया हो। उसका साथी उससे बड़े आश्चर्य से पूछता है कि यार तू इन सभी को एक साथ अजस्ट कैसे करता है, और इस सवाल पर उसका सीना शान से और चौड़ा हो जाता है। यानी कि लड़कियों का अस्तित्व सिर्फ दो पैसे में पटाने से लेकर अजस्ट करने तक ही रह गया है। एक तरफ तो कहा जा रहा है कि लड़कियां हर क्षेत्र में आगे बढ़ रही हैं। उनके सशक्त होने के दावे किए जाते हैं पर विज्ञापनों में कामयाब स्त्री कम क्यों दिखाई देती है?

दरअसल विज्ञापन बनाने वाले भी एक औसत पुरुष की आंख से ही समाज को देखते हैं। और आज का पुरुष समाज अब भी मानसिक स्तर पर स्त्री को बराबरी का दर्जा नहीं दे पाया है। वह औरत को मनोरंजन की ही वस्तु समझता है। विज्ञापनों में यही मानसिकता झलकती है। एक विज्ञापन में एक लड़की का महज खूबसूरत होना ही उसकी कामयाबी का कारण बन गया। एक और विज्ञापन में लड़की ने फेयरनेस क्रीम लगाई तो वह स्टार बन गई। वहीं जब लड़के ने वही क्रीम लगा ली तो उसका दोस्त बोलता है कि 'मर्द होकर लड़कियों वाली फेयरनेस क्रीम? यानी लड़कियां एक उत्पाद के साथ- साथ 'मर्दों' के आगे इतनी छोटी भी हैं कि गलती से भी उनकी क्रीम लगाना इन 'मर्दों' के लिए मुंह छुपाने का कारण बन जाता है। एक रिफायंड ऑइल के लगभग सभी विज्ञापनों में महिलाओं को एक हाउस वाइफ के ही रूप में ही दिखाया जाता है, जो अपने पति की बढ़ती उम्र की फिक्र करती है, और उसके लिए वह ऑइल लाती है ताकि उसकी सेहत अच्छी रहे। इस ऑइल के किसी भी विज्ञापन में यह नहीं दिखाया जाता कि पति अपनी पत्नी के लिए वह ऑयल लाया हो, मानो घर में सारा दिन काम करते रहने वाली महिला को खराब सेहत का तो कोई खतरा ही नहीं है।

मगर यहां से यह विज्ञापन पैतृक समाज की इस सोच का एक और पहलू सामने लाते हैं, वह यह कि एक ओर तो अधिकतर युवा गर्लफ्रेंड के नाम पर खूबसूरत वेस्टर्न कपड़े पहनने वाला उत्पाद अपने साथ चाहते हैं, वहीं दूसरी ओर पत्नी के नाम पर एक हाउसवाइफ को ही प्राथमिकता देते हैं जो अपना करियर छोड़ कर उनके साथ अपनी जिंदगी गुजार दे। दरअसल दिक्कत समाज के एक वर्ग की सोच की है जो महिलाओं को एक दायरे से बाहर नहीं देखना चाहता है और इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि इस वर्ग में कुछ महिलाएं भी शामिल हैं। राष्ट्रीय महिला आयोग भले ही पहल करके ऐसे विज्ञापनों पर रोक लगवा दे लेकिन इससे समाज की उस सोच पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा जो इसके लिए जिम्मेदार है। इस समस्या से निपटने के लिए सबसे जरूरी इस सोच को खत्म करना है जिसके लिए बहुत गंभीर प्रयासों की जरूरत है। और यह प्रयास महिला आयोग जैसी कोई एक संस्था नहीं कर सकती है बल्कि इसे सारे समाज को मिलकर करना होगा।

Sunday, May 22, 2011

यह संविधान इतना दोगला क्यों हैं?

: जुल्म जारी रखो.. जनता ने खामोश रहना सीख लिया है : राहुल के भट्टा परसौल पहुंचने से एक दिन पहले प्रसारित वीडियो (टीवी रिपोर्टरों के मुताबिक यह गांव से काफी दूर से लिए गए थे) में गांव जलता हुआ दिख रहा था। आग की लपटें दिख रहीं थी। जली हुई गाड़ियां दिख रहीं थी। जली हुई बाइकें दिख रही थी। जलते हुए खेत दिख रहे थे। जलते हुए भूसे और उपलों के बटोरे दिख रहे थे। मतलब..इसमें कोई शक नहीं कि आग दिख रही थी। आग लगी थी..चारो और आग दिख रही थी।

राहुल गांधी बाइक से भट्टा परसौल पहुंचे और पीछे-पीछे मीडिया भी पहुंचा। पहले यहां धारा 144 लगी हुई थी और मीडिया वालों को गांव में जाने से पुलिस ने रोक दिया था। (जबकि धारा 144 के तहक आने-जाने पर कोई प्रतिबंध नहीं होता, यह सिर्फ लोगों को इकट्ठा होने से रोकती है।) मीडिया पहुंचा तो चीजें सामने आनी शुरु हुई। जी न्यूज, एनडीटीवी, स्टार न्यूज और बाकी सभी चैनलों के रिपोर्टरों ने गांव वालों को दिखाया, (मैंने यह पटना में बैठकर टीवी पर देखा)।

बुरी तरह पिटे हुए बुजुर्ग टीवी पर दिखे। चेहरे पर घाव के निशान लिए महिलाएं टीवी पर दिखी। सिसकते हुए बच्चे टीवी पर दिखे। अपनी आबरू लुटने की दुहाई देती हुई महिलाएं भी टीवी पर दिखी। पुलिस द्वारा लोगों (खासकर पुरुषों और युवाओं) को पीटे जाने की बर्बर दासतान सुनाते हुए बुजुर्ग टीवी पर दिखे। रोतो हुए बुजुर्ग दिखे, बिलखते हुए बच्चे दिखे, सिसिकती हुए माएं दिखी, तड़पती हुए बहनें दिखी।

राहुल ने यह देखा। देश ने यह देखा। मायावती ने भी जरूर देखा होगा और अफसरों ने भी देखा होगा। हां..सबने देखा। राहुल राजनीति से हैं इसलिए लोगों ने राहुल के वहां पहुंचने पर इसे देखने का नजरिया बदल लिया। अब जिसने भी देखा इसे राजनीतिक चश्मे से देखा। बीजेपी ने देखा और राहुल की आलोचना की। मायावती ने देखा राहुल की आलोचना की। कांग्रेसियों ने देखा राहुल के गुणगान गाए।

अब गांव वालों के जख्मों पर, बुझी हुई आंखों पर, लुटे हुए घरों पर, बिलखती हुए माओं पर, तड़पती हुई पत्नियों पर और भट्टा की राख में दम तोड़ रही यहां के बच्चों के सपनों को राजनीति ने ढक दिया। पूरा प्रकरण राहुल की राजनीतिक जीत या मायावती की हार में बदल गया। अब मुद्दा राजनीतिक हो गया। राहुल गिरफ्तार हुए, रिहा हुए और दिल्ली पहुंचे। गांव के पीड़ितों को लेकर प्रधानमंत्री के पास पहुंचे। प्रधानमंत्री ने भी ग्रामीणों की दास्तान सुनीं। प्रधानमंत्री से मुलाकात के बाद राहुल ने मीडिया के सामने कहा कि भट्टा परसौल में ज्यादती हुई, मानवाधिकारों का हनन हुआ, हत्याएं हुईं, बलात्कार हुए।

देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी के 'युवराज' के मुंह से यह शब्द निकले हर अखबार की सुर्खी बने। अखबारों ने कहा भट्टा में ज्यादती हुई। टीवी ने कहा भट्टा में ज्यादती हुई। राहुल ने कहा तो सबने कहा भट्टा में ज्यादती हुई। सबने देखा भट्टा में ज्यादती हुई। सबने कह भी दिया भट्टा परसौल में ज्यादती हुई। माया ने सुन लिया। माया के अफसरों ने सुन लिया।

अगले ही दिन माया के अफसरों ने प्रेस कांफ्रेंस की। डरते हुए प्रेस कांफ्रेंस की। राहुल के हर आरोप को निराधार बताया। बयान को निराधार बताया। बुजुर्गों को पीटे जाने के निराधार बताया, महिलाओं से ज्यादती को निराधार बताया। यानि राहुल ने जो कुछ कहा उसे निराधार बताया, प्रधानमंत्री ने जो सुना उसे निराधार बताया। हमने जो टीवी पर देखा उसे निराधार बताया। कहा कि राख के नमूने यह जांचने के लिए लिए गए कि कहीं उसमें कोई विस्फोटक तो नहीं है।

इससे पहले माया ने अपने पुलिस अफसरों का गुणगान किया। भट्टा परसौल की घटना पर हो रही राजनीति की आलोचना की। अपनी सरकार की तारीफ में कसीदे पढ़े। हमने सुने। आपने सुने। हम सबने सुने। राहुल बोले हमने सुना। माया बोली हमने सुना। माया के अफसर बोले हमने सुना। सब बोले हमने सुना। सब बोल चुके और अब हम खामोश। हमारी खामोशी ने बता दिया कि जिसने जो कहा सही है। राहुल ने जो कहा वो भी सही। टीवी पर जो दिखा (इसमें कोई शक नहीं हो सकता क्योंकि ये हमने सुना नहीं हमने देखा) वो भी सही। मायावती ने जो कहा वो भी सही। अफसरों ने जो कहा वो भी सही। हमने सबको सही माना और हम खामोश।

एक और बात, मुझे याद है कि एक बार मुझे समझाते हुए एक बुजुर्ग ने कहा था कि यदि तुम कहीं जुल्म होते हुए देखो तो अगर तुम्हारे बस में हो तो उसे रोक दो। कोई जालिम यदि किसी मजलूम पर जुल्म कर रहा है तो उसे रोक दो। अगर रोकने लायक ताकत तुममें न हो तो आवाज बुलंद कर यह कहो कि जुल्म हो रहा है, हो सकता है कि कोई ऐसा बंदा सुन ले जो उस जालिम को रोक सके। यदि तुम्हें इस बात का डर हो कि जालिम तुम्हारी आवाज सुन कर तुम पर भी जुल्म करेगा तो बुलंद आवाज में न सही लेकिन अपने दिल में तो कहो कि जुल्म हो रहा है। और जब तुम अपने दिल में कहोगे कि जुल्म हो रहा है तो तुम्हें अहसास होगा कि तुम कितने बेबस हो, एक जालिम को नहीं रोक सकते, जुल्म को नहीं रोक सकते, जुल्म के खिलाफ आवाज नहीं उठा सकते। यह बेबसी का अहसास तुम्हें जुल्म के खिलाफ आवाज बुलंद करने के लिए ताकतवर बनने की प्रेरणा देगा।

अब कुछ सवाल-

  1. क्या किसी ने यह पूछा कि जो दो गांव वाले मारे गए उनका कोई आपराधिक रिकार्ड था क्या?

  2. क्या ऐसा कोई कानून होता है जो पुलिस को घरों में आग लगाने की इजाजत देता है। या घर में ही क्यों किसी भी चीज में आग लगाने की इजाजत देता है?

  3. क्या पुलिस ने जो भट्टा परसौल में किया वो दहशत फैलाने की नियत से नहीं था? क्या पुलिस को अधिकार है कि वो बदले की भावना से कार्रवाई करे ?

  4. एक बचकाना सवाल- क्या विस्फोटकों में आग लगाई जाती है? पुलिस का कहना है कि भट्टा परसौल में ग्रामीणों ने घरों में विस्फोटक रख रखे थे? ये कहां से आए और ग्रामीणों को इनकी क्या जरूरत थी?

एक और सवाल-

हम इतने बेबस क्यों हैं। हम जुल्म देखते हैं खामोश रहते हैं। जुल्म की दास्तान सुनते हैं खामोश रहते हैं। दहशतगर्दी देखते हैं खामोश रहते हैं। दूसरे के घरों को जलता हुए देखकर हमारे दिल से धुआं क्यों नहीं उठता। हम हर बात में राजनीति क्यों देखते हैं। हम राहुल के बयानों में राजनीति दिख जाती है लेकिन जो भुस को बटोरे पुलिस ने जलाए उन्हें बनाने में लगी किसानों की मेहनत क्यों नहीं दिखती? जो गाय-भैसों के गोबर के उपले पुलिस ने जलाए उनमें लगी गांव की मां-बेटियों की मेहनत क्यों नहीं दिखती? चलो मान लिया कि पुलिस ने ग्रामीणों की जान नहीं ली...लेकिन क्या जो आगजनी हुई वो संवैधानिक है? जो नुकसान हुआ वो संवैधानिक है?

और अंतिम बात-

जो संविधान पुलिस और प्रशासन को असीमित ताकत देता है। जो सरकारों और नौकरशाहों को खास सुविधाएं देता है वो आम जनता को सम्मान से जीने का अधीकार भी तो देता है। सरकार और अफसरों को तो ताकत, दौलत, शौहरत और बहुत कुछ मिल जाता है...लेकिन बेचारी जनता को सम्मान क्यों नहीं मिल पाता। यह संविधान इतना दोगला क्यों हैं?

क्या इतने पुलिस बल का मुकाबला देश का कोई भी गांव कर सकता है?

ये बुजुर्ग जख्म ही तो दिखा रहा है। या आपको कुछ और दिख रहा है?

ये आग सबने देखी। क्या पुलिस के पास गांव में आग लगाने का कोई विशेषाधिकार है?

ये महिलाएं राहुल से क्या कह रही हैं। क्या ये जो कह रही हैं उसपर यकीन न करने की कोई वजह है?

राहुल की राजनीति को भी देखों लेकिन जनता पर अत्याचार को नजरअंदाज मत करो।


नीतीश कुमार
पटना
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Wednesday, May 11, 2011

बाल श्रम, मज़बूरी या मजदूरी

आज 21 वीं शताब्दी में बाल श्रम जैसा शब्द कर्ण अप्रिय लगता है. लेकिन हमारे समाज का ये एक घिनौना सच है. सरकार की विभिन्न योजनाओं के बावजूद इस से निजात पाना एक चुनौती बन गया है.

पेश है नीतीश कुमार की विशेष रिपोर्ट.